शुक्रवार, 24 मई 2013

भारत भी झेलेगा ग्लोबल वार्मिग का असर

16 नवंबर को पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने जलवायु परिवर्तन पर इंडियन नेटवर्क फॉर क्लायमेट चेंज असेसमेंट की रिपोर्ट जारी करते हुए चेताया है कि यदि पृथ्वी के औसत तापमान का बंढना इसी प्रकार जारी रहा तो अगामी वर्षों में भारत को इसके दुष्परिणाम झेलने होंगे। विभिन्न स्थलाकृतियां (पहाड़, रेगिस्तान, दलदली क्षेत्र व पश्चिमी घाट जैसे समृद्ध क्षेत्र) ग्लोबल वार्मिंग के कहर की शिकार होंगी। 
120 संस्थाओं एवं लगभग 500 वैज्ञानिकों द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार भारत में कृषि, जल, पारिस्थितिकी तंत्र एवं जैव विविधता व स्वास्थ्य ग्लोबल वार्मिंग से उत्पन्न समस्याओं से अछूते नहीं रहेंगे। वर्ष 2030 तक औसत सतही तापमान
में 1.7 से 2.0 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है। इस रिपोर्ट में चार भौगोलिक क्षेत्रों - हिमालय क्षेत्र, उत्तर-पूर्वी क्षेत्र, पश्चिमी घाट व तटीय क्षेत्र - के आधार पर पूरे देश पर जलवायु परिवर्तन का अध्ययन किया गया है। इन चारों क्षेत्रों में तापमान में वृद्धि के कारण बारिश और गर्मी-ठंड पर पंडने वाले प्रभावों का अध्ययन कर संभावित परिणामों का अनुमान लगाया गया है।  यह रिपोर्ट बढ़ते तापमान के कारण समुद्री जलस्तर में वृद्धि एवं तटीय क्षेत्रों में आने वाले चक्रवातों पर भी प्रकाश डालती है। पश्चिमी घाट में तापमान में वृद्धि के कारण चावल की उपज में 4 प्रतिशत तक की गिरावट आएगी। इसके अलावा जहां कुछ क्षेत्रों में नारियल की उपज 30 प्रतिशत तक बढ़ेगी, वहीं दक्षिण-पश्चिमी कर्नाटक और तमिलनाडु व महाराष्ट्र के कुछ हिस्सों में पैदावार में कमी आएगी। इसके साथ ही पालतू पशुओं पर भी ग्लोबल वार्मिंग का गंभीर प्रभाव पड़ेगा।  जहां तटीय क्षेत्रों में चावल के सिंचित क्षेत्र में 10 से 20 प्रतिशत की गिरावट आएगी वहीं महाराष्ट्र के तटीय ंजिलों, उत्तरी आंध्र प्रदेश व उड़ीसा में चावल के सिंचित क्षेत्र में 5 प्रतिशत की बढत हो सकती है। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र में मक्का की उपज में 40 प्रतिशत गिरावट दर्ज की जाएगी। चावल की उपज में कहीं 10 प्रतिशत तक कमी आ सकती है तो कहीं 5 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज की जाएगी।  जलवायु परिवर्तन का मानव स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। बांढ एवं सूखे की स्थिति में विस्थापन केकारण कुपोषण, भुखमरी एवं संक्रामक रोगों का भी खतरा बढ़ जाता है। तापमान में होने वाले बदलावों के कारण डेंगू, मलेरिया और दूसरी बीमारियों के बंढने की आशंका रहेगी। मलेरिया जन स्वास्थ्य की एक गंभीर समस्या है। प्रति वर्ष पूरे विश्व में करीब 50 करोंड लोग मलेरिया की चपेट में आते हैं। भारत में पिछले दस सालों में हर साल मलेरिया के लगभग 20 लाख मामले सामने आते रहे हैं। मच्छरों की विकास प्रक्रिया, उनकी आयु तथा रोग संचरण क्रिया में तापमान एवं आर्द्रता की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। धरती के गरमाने के कारण ऊंचाई वाले क्षेत्र में तापमान में वृद्धि के कारण मलेरिया का खतरा बढ़ सकता है। इसके अलावा तापमान में वृद्धि के साथ डेंगू की महामारी की संभावना भी बढेग़ी। इस साल अकेले दिल्ली में ही डेंगू के करीब पांच हंजार मामले देखे गए।  जलवायु परिवर्तन के कारण रोग उत्पन्न करने वाले बैक्टीरिया, वायरस आदि की संख्या में तीव्रता से वृद्धि स्वास्थ्य के लिए गंभीर खतरा पैदा करेगी। इसके अलावा गर्म मौसम के कारण मच्छर, चूहों आदि की आबादी बढ़ने की संभावना व्यक्त की जा रही है जिसके पारिणामस्वरूप भविष्य में नई-नई बीमारियों के फैलने का खतरा बढ ज़ाएगा।
यह तो हम जानते ही हैं कि प्रदूषित पर्यावरण करीब एक चौथाई रोगों का कारण बनता है। प्रति वर्ष घरेलू एवं बाहरी वायु प्रदूषण के कारण लगभग 20 लाख लोग मृत्यु के मुंह में समा जाते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार अकेले भारत में ही हर साल चार लाख से अधिक महिलाएं और बच्चे सांस के साथ फेफड़ों में कार्बन पहुंचने के कारण बीमार होते हैं।  जलवायु परिवर्तन की समस्या पर्यावरण और पृथ्वी पर उपस्थित समस्त जीवन के साथ-साथ मानव के रहन-सहन एवं सामाजिक व आर्थिक जीवन को भी प्रभावित करेगी। वैसे इसका प्रभाव धीरे-धीरे दिखाई देने लगा है। वैश्विक गर्माहट के कारण पृथ्वी की जलवायु में परिवर्तन होने से यहां उपस्थित जीवन के सामने अनेक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। आज बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण मौसम में अनियमितता आई है, जिसके परिणामस्वरूप कहीं बांढ तो कहीं सूखे की स्थिति उत्पन्न हो रही है। बदलती जलवायु ने सुनामी, भूस्खलन और तूफानों के खतरे में वृद्धि की है।  बंढते तापमान से पृथ्वी की जैव विविधता भी तहस-नहस होगी। अभी जहां हमारी पृथ्वी जीवन के रंग-बिरंगे रूपों से सजी है वहीं बंढता तापमान जीवों की विलुप्ति का कारण बनेगा। जलवायु परिवर्तन के कारण अनेक जीव धरती से विलुप्त हो सकते हैं। तापमान में वृद्धि के कारण विभिन्न पारस्थितिकी तंत्रों में भी बदलाव आने से वहां विद्यमान जैव विविधता घटेगी।  अब सवाल यह उठता है कि पृथ्वी पर मंडरा रहे ग्लोबल वार्मिंग का कारणक्या है। अनेक वर्षों तक वैज्ञानिकों, समाज विज्ञानियों व बुद्धिजीवियों ने अपने अध्ययन के उपरांत पृथ्वी पर मानवीय गतिविधियों को ही दोषी पाया है। यों-यों मानव ने सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ी हैं, त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएं बढी हैं। अपनी आवश्यकताओं को पूरा करने की खातिर मानव ने प्राकृतिक संपदा का अंधाधुंध दोहन करके इस ग्रह के नांजुक संतुलन को ही गड़बड़ा दिया है। लेकिन यह बात सोचने की है कि बेलगाम दोहन के बावजूद आदमी पहले से ंज्यादा सुखी नहीं हुआ है, बल्कि ंज्यादा दुखी हो गया है। 
औद्योगिक विकास के साथ-साथ विकास प्रक्रियाओं की खातिर कार्बन डाईऑक्साइड, नाइट्रस ऑक्साइड, मीथेन और क्लोरोफ्लोरोकार्बन जैसे पदार्थ धीरे-धीरे वायुमंडल में समाते रहे और इन सभी घटनाओं से पृथ्वी गर्म होने लगी। पृथ्वी का धीरे-धीरे गर्म होना जलवायु में ऐसे अनेक अनगिनत बदलाव का कारण साबित हुआ है जिसके कारण यहां उपस्थित जीवन को विभिन्न चुनौतियों का सामना करना पंड रहा है।     आज शुद्ध जल, शुद्ध मिट्टी और शुद्ध वायु हमारे लिए अपरिचित हो गए हैं। आज विकास की राह सिर्फ इंसान के लिए बनाई जा रही है, इसमें प्रकृति कहीं नहीं है। ऐसी परिस्थितियों में मानवीय मूल्यों और पर्यावरण में होते ह्रास के कारण पृथ्वी और यहां उपस्थित जीवन के खुशहाल भविष्य को लेकर चिंता होने लगी है। ऐसे समय में महात्मा गांधी के 'सादा जीवन उच विचार' वाली विचारधारा को अपनाने की आवश्यकता अनुभव की जा रही है। गांधीजी के विचारों का अनुकरण करने पर मानव प्रकृति के साथ प्रेममयी सम्बंधस्थापित करते हुए आनंदमय जीवन व्यतीत कर इस पृथ्वी ग्रह की सुंदरता को बरकरार रख सकता है।  जलवायु परिवर्तन एवं इससे सम्बंधित विभिन्न समस्याओं, जैसे प्रदूषित होता पर्यावरण, जीवों व वनस्पतियों की प्रजातियों का विलुप्त होना, उपजाऊ भूमि में होती कमी, खाद्यान्न संकट, तटवर्ती क्षेत्रों का क्षरण, ऊर्जा के स्रोतों का कम होना और नई-नई बीमारियों का फैलना आदि संकटों से पृथ्वी ग्रह को बचाने के लिए सभी को प्रयास करने होंगे। समय की मांग है कि हम प्रकृति की चेतावनी को समझें और पर्यावरण से छेड़खानी बंद करें। हम आज प्रदूषण के कारण हो रही पर्यावरण की हानि को अछी तरह समझ चुके हैं। हमें जलवायु परिवर्तन से जीवन पर मंडराते खतरे अब नंजर आने लगे हैं। इसलिए ंजरूरत है अपने लालच और इछाओं से ऊपर उठकर आने वाली पीढी क़े बारे में सोचने की। हमें रासायनिक उर्वरक और कीटनाशियों को छोड़कर जैविक खेती को अपनाना होगा। पर्यावरण की रक्षा करनी होगी। प्लास्टिक, जीवाश्म ईंधन आदि का कम से कम उपयोग करना होगा। अपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों को बढ़ावा देना होगा। जैव-डींजल, सौर ऊर्जा, हाइड्रोजन ईंधन, पन एवं पवन बिजली जैसे प्राकृतिक अक्षय ऊर्जा के स्रोतों को बंडे स्तर पर अपनाना होगा। पर्यावरण सुरक्षित रहेगा तो धरती पर जीवन सुरक्षित रहेगा। आज ंजरूरत है अपनी पिछली गलतियों से सबक लेने की और उन्हें सुधारने की। हमें अपने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए आज से ही कदम उठाने होंगे वरना कल बहुत देर हो जाएगी।  जलवायु परिवर्तन की समस्या से निपटने और हमारी पृथ्वी को जीवनदायी ग्रह बनाए रखने के लिए प्रत्येक मानव को प्रकृति के संग-संग चलना होगा ताकि हमारा यह ग्रह जीवनमय बना रहे। आज पृथ्वी के जीवनदायी स्वरूप को बनाए रखने की सर्वाधिक ंजिम्मेदारी मानव के कंधों पर ही है। ऐसे में मानव को ऐसे व्यक्ति या उसके विचारों का अनुसरण करने की आवश्यकता है, जिसने प्रकृति को करीब से जाना-समझा हो और सदैव प्रकृति का सम्मान किया हो। दुनिया में प्रकृति के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने वाले लोगों में महात्मा गांधी, सुंदरलाल बहुगुणा एवं बाबा आमटे आदि अनेक नाम शामिल हैं। 
आज उपस्थित सामाजिक व पर्यावरणीय विषम परिस्थितियों के लिए हमारा भोगवादी नंजरिया ही ंजिम्मेदार है। इसमें कोई दो राय नहीं कि भोग की बंढती प्रवृत्ति ही प्रकृति का दोहन करवाती है। जल, ंजमीन और भोजन जैसी अनिवार्य सुविधाओं के लिए हमें प्रकृति का दोहन नहीं बल्कि उसका उपयोग करना चाहिए, तभी यह धरती युगों-युगों तक हमारी आवश्यकताओं को पूरा करती हुई जीवन के विविध रूपों के साथ मुस्कुराती रहेगी।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें