दुनिया में जहां एक ओर जहरीली ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है वहीं जंगलों की अंधाधुंध कटाई से वन क्षेत्र खतरनाक स्तर तक
कम हो रहे हैं जिससे जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की यहां जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक मंदी की शुरूआत में वर्ष 2008-09 में जहरीली गैसों का उत्सर्जन कम रहने के बाद 2009-10 में यह फिर बढ़ गया है। विकसित देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकासशील देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। वर्ष 2008-09 में कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में 0.4 प्रतिशत की गिरावट आई थी, लेकिन वर्ष 2009-10 में इसमें फिर पांच प्रतिशत तक की वृद्धि हो गई। वर्ष 1990 के स्तर से अब तक इसमें 46 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो चुकी है। पिछले दो दशकों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता लगता है कि जहरीली गैसों का उत्सर्जन निरंतर बढ़ रहा है। वर्ष 1990 से 2000 के दौरान इस प्रदूषणकारी गैस में 10 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई थी जबकि 2000 से 2010 के दौरान इसमें 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई।
विकसित देशों में प्रति व्यक्ति हर वर्ष औसत उत्सर्जन करीब 1१ टन है जबकि विकासशील देशों में यह मात्र तीन टन है। दरअसल 1990 तक विकसित देशों में इन गैसों का उत्सर्जन विकासशील देशों की तुलना में दोगुना से भी ज्यादा था। वर्ष 1990 में विकासशील देशों ने जहां मात्र 6.7 अरब टन गैस का उत्सर्जन किया था वहीं विकसित देशों में यह 14.9 प्रतिशत था, लेकिन 2009.10 में विकसित देशों के तीन प्रतिशत के मुकाबले विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में इसमें सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है। धरती का तापमान बढ़ाने वाली इस गैस की मात्रा विश्व में वर्ष 1990 में 21.7 टन थी जबकि 2009 में यह 30.१ टन तथा 2010 में 31.7 टन हो गई है।
उधर वन क्षेत्र बढ़ाने के तमाम कानून बनने के बावजूद दुनिया में जंगल बहुत तेजी से कम होते जा रहे हैं और इनकी कमी खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है। वनों की कटाई का मुख्य कारण विश्व की विशाल आबादी का पेट भरने के लिए वन क्षेत्रों को कृषि भूमि में बदलना है। सबसे ज्यादा वनों की कटाई दक्षिणी अमेरिकी देशों और अफ्रीका में हुई है। वर्ष 2005-10 के दौरान इन दोनों क्षेत्रों में हर वर्ष क्रमश 36 लाख हेक्टेयर और 34 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र समाप्त हो गया।
जंगल समाप्त होने का सबसे ज्यादा खामियाजा गरीबों और आदिवासियों को भुगतना पड़ा है जो अपनी रोजी-रोटी के लिए वनोंपजों पर निर्भर हैं। जंगलों समेत प्राकृतिक संसाधनों के अतिशत दोहन से पक्षी-स्तनधारी तथा अन्य जीव जंतु सबसे तेज गति से के लुप्तप्राय हो रहे हैं। अंतरराट्रीय प्रकृति संरक्षण संघा के अनुसार दुनिया में पक्षियों की दस हजार स्तनधारियों की साढ़े चार हजार, गर्म जल के मंूगों की 700 तथा उभयचरों की 5700 प्रजातियां हैं। इनमें से सभी प्रजातियां पहले से भी तेज गति से लुप्तप्राय हो रही हैं।
कम हो रहे हैं जिससे जलवायु परिवर्तन का खतरा बढ़ता जा रहा है।
संयुक्त राष्ट्र की यहां जारी ताजा रिपोर्ट के अनुसार आर्थिक मंदी की शुरूआत में वर्ष 2008-09 में जहरीली गैसों का उत्सर्जन कम रहने के बाद 2009-10 में यह फिर बढ़ गया है। विकसित देशों में प्रति व्यक्ति उत्सर्जन विकासशील देशों के मुकाबले बहुत ज्यादा है। वर्ष 2008-09 में कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में 0.4 प्रतिशत की गिरावट आई थी, लेकिन वर्ष 2009-10 में इसमें फिर पांच प्रतिशत तक की वृद्धि हो गई। वर्ष 1990 के स्तर से अब तक इसमें 46 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हो चुकी है। पिछले दो दशकों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता लगता है कि जहरीली गैसों का उत्सर्जन निरंतर बढ़ रहा है। वर्ष 1990 से 2000 के दौरान इस प्रदूषणकारी गैस में 10 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई थी जबकि 2000 से 2010 के दौरान इसमें 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई।
विकसित देशों में प्रति व्यक्ति हर वर्ष औसत उत्सर्जन करीब 1१ टन है जबकि विकासशील देशों में यह मात्र तीन टन है। दरअसल 1990 तक विकसित देशों में इन गैसों का उत्सर्जन विकासशील देशों की तुलना में दोगुना से भी ज्यादा था। वर्ष 1990 में विकासशील देशों ने जहां मात्र 6.7 अरब टन गैस का उत्सर्जन किया था वहीं विकसित देशों में यह 14.9 प्रतिशत था, लेकिन 2009.10 में विकसित देशों के तीन प्रतिशत के मुकाबले विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में इसमें सात प्रतिशत की वृद्धि हुई है। धरती का तापमान बढ़ाने वाली इस गैस की मात्रा विश्व में वर्ष 1990 में 21.7 टन थी जबकि 2009 में यह 30.१ टन तथा 2010 में 31.7 टन हो गई है।
उधर वन क्षेत्र बढ़ाने के तमाम कानून बनने के बावजूद दुनिया में जंगल बहुत तेजी से कम होते जा रहे हैं और इनकी कमी खतरनाक स्तर पर पहुंच गयी है। वनों की कटाई का मुख्य कारण विश्व की विशाल आबादी का पेट भरने के लिए वन क्षेत्रों को कृषि भूमि में बदलना है। सबसे ज्यादा वनों की कटाई दक्षिणी अमेरिकी देशों और अफ्रीका में हुई है। वर्ष 2005-10 के दौरान इन दोनों क्षेत्रों में हर वर्ष क्रमश 36 लाख हेक्टेयर और 34 लाख हेक्टेयर वन क्षेत्र समाप्त हो गया।
जंगल समाप्त होने का सबसे ज्यादा खामियाजा गरीबों और आदिवासियों को भुगतना पड़ा है जो अपनी रोजी-रोटी के लिए वनोंपजों पर निर्भर हैं। जंगलों समेत प्राकृतिक संसाधनों के अतिशत दोहन से पक्षी-स्तनधारी तथा अन्य जीव जंतु सबसे तेज गति से के लुप्तप्राय हो रहे हैं। अंतरराट्रीय प्रकृति संरक्षण संघा के अनुसार दुनिया में पक्षियों की दस हजार स्तनधारियों की साढ़े चार हजार, गर्म जल के मंूगों की 700 तथा उभयचरों की 5700 प्रजातियां हैं। इनमें से सभी प्रजातियां पहले से भी तेज गति से लुप्तप्राय हो रही हैं।

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