देश में चुनाव सुधार के नजरिए से कोर्ट केंद्रीय भूमिका में आ गया है। सुप्रीम कोर्ट ने जहां राजनीति में अपराधीकरण और चुनावी वायदों पर राजनीतिक दलों पर अपने फैसलों से शिकंजा कसा, वहीं इलाहाबाद हाईकोर्ट ने यूपी में जातिगत सम्मेलनों पर रोक लगाने का फैसला सुनाकर राजनीतिक दलों को तगड़ा झटका दिया। कोर्ट के इन फैसलों से दूरगामी असर पड़ने की उम्मीद है।
राजनीतिक दल और सरकार भले ही चुनाव सुधारों पर चुप्पी साधे बैठी हो, लेकिन कोर्ट ने मैली होती जा रही राजनीति की गंगा को साफ करने का फैसला कर लिया है।
दागी नेताओं पर शिकंजा
सुप्रीम कोर्ट ने 10 जुलाई 2013 को राजनीति में अपराधीकरण रोकने की दिशा में अहम फैसला दिया। कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा कि कोई व्यक्ति जो जेल या पुलिस हिरासत में है तो वह विधायी निकायों के लिए चुनाव लड़ने का हकदार नहीं है। इस फैसले से उन राजनीतिक लोगों को झटका लगेगा जो किसी आपराधिक मामले में दोष साबित होने के बाद होने के बाद इस समय जेल में बंद हैं।
कोर्ट ने कहा कि जेल में होने या पुलिस हिरासत में होने के आधार पर उसका मत देने का अधिकार समाप्त हो जाता है। कोर्ट ने साफ किया कि अयोग्य ठहराए जाने की बात उन लोगों पर लागू नहीं होगी जो किसी कानून के तहत एहतियातन हिरासत में लिए गए हों।
कोर्ट ने मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य की उस अपील पर यह आदेश दिया जिसमें पटना हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी गई थी। पटना हाई कोर्ट ने पुलिस हिरासत में बंद लोगों के चुनाव लड़ने पर रोक लगा दी थी।
9 जुलाई 2013 को इसी पीठ ने जन प्रतिनिधित्व कानून के उस प्रावधान को निरस्त कर दिया था जो दोषी ठहराए गए जन प्रतिनिधियों को सुप्रीम कोर्ट में याचिका लंबित होने के आधार पर अयोग्यता से संरक्षण प्रदान करता था। पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि जनप्रतिनिधि दोषी ठहराए जाने की तारीख से ही अयोग्य होंगे।
कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि कोर्ट के इन दो फैसलों से राजनीतिक पार्टियां यह सुनिश्चित करने के लिए बाध्य होंगी कि आपराधिक आरोपों का सामना कर रहे उम्मीदवारों को मैदान में नहीं उतारा जाए। जानकारों का कहना है कि फैसला अंतिम नहीं है और इसकी समीक्षा हो सकती है।
घोषणा पत्र के लिए बने गाइडलाइन
इसके पहले सुप्रीम कोर्ट ने पांच जुलाई को चुनाव आयोग को घोषणा पत्रों के कथ्य के नियमन के लिए गाइडलाइन तैयार करने का निर्देश देते हुए कहा था कि राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी घोषणा पत्रों में मुफ्त उपहार देने के वायदे किए जाने से स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनावों की बुनियाद हिल जाती है। न्यायमूर्ति पी. सदाशिवम और न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की पीठ ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र चुनाव आचार संहिता लागू होने से पहले प्रकाशित होते हैं। ऐसे में आयोग इसे अपवाद के रुप में आचार संहिता के दायरे में ला सकता है।
फैसले का व्यापक असर हो सकता है और राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त में लैपटॉप, टेलीविजन, ग्राइंडर, मिक्सर, बिजली के पंखे, चार ग्राम की सोने की थाली और मुफ्त अनाज मुहैया कराने जैसे वायदे किए जाने पर रोक लग सकती है। पीठ ने यह भी कहा कि इस मुद्दे पर अलग से कानून बनाया जाना चाहिए।
याचिका अधिवक्ता एस सुब्रमण्यम बालाजी ने दायर की थी जिसमें मुफ्त उपहार देने के राज्य सरकार के फैसले को चुनौती दी गई थी। याचिकाकर्ता ने कहा था कि इस तरह की लोक लुभावन घोषणाएं न सिर्फ असंवैधानिक हैं बल्कि इससे सरकारी खजाने पर भी भारी बोझ पड़ता है।
यूपी में जाति आधारित सम्मेलनों पर रोक
इसी क्रम में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनउ पीठ ने गुरुवार को एक अहम फैसले में पूरे उत्तर प्रदेश में जातियों के आधार पर की जा रही राजनीतिक दलों की रैलियों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है। कोर्ट ने पार्टियों को निर्देश दिया है कि वे जातिगत रैलियों और बैठकों से दूर रहें। इस तरह की रैलियों से समाज बंटता है। इसी के साथ अदालत ने मामले में पक्षकारों केंद्र और राज्य सरकार समेत भारत निर्वाचन आयोग और चार राजनीतिक दलों कांग्रेस, बाजेपी, एसपी और बीएसपी को नोटिस जारी किए हैं।
जस्टिस उमानाथ सिंह और जस्टिस महेंद्र दयाल की खंडपीठ ने यह आदेश स्थानीय वकील मोतीलाल यादव की जनहित याचिका पर दिया है। याचिकाकर्ता का कहना था कि उत्तर प्रदेश में जातियों पर आधारित राजनीतिक रैलियों की बाढ आ गयी है और सियासी दल अंधाधुंध जातीय रैलियां कर रहे हैं। याची ने अदालत से कहा कि संविधान के अनुसार सभी जातियां बराबर का दर्जा रखती हैं। किसी पार्टी विशेष द्वारा उन्हें अलग रखना कानून और मूल अधिकारों का हनन है।
(साभार आईबीएन खबर)
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