शनिवार, 21 सितंबर 2013

त्योहारी मौसम में और मैली होगी गंगा


विश्व में भारतीय संस्कृति की पर्याय तथा करोड़ांे हिन्दू अनुयायियों की आस्था की प्रतीक मोक्षदायिनी गंगा त्योहारी मौसम में एक बार फिर और मैली होने को विवश है। वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों ने आगामी त्योहारी के दौरान प्रतिमा विसर्जन तथा पूजा सामग्री के प्रवाह से गंगाजल दस प्रतिशत तक और अधिक दूषित होने की संभावना जताई है। 
देश की करीब आधी आबादी की जीवन रेखा गंगा का उदगम उत्तरांचल में स्थित हिमालय के पश्चिमी छोर पर 12 हजार 769 फिट की ऊंचाई पर स्थित गोमुख से माना जाता है। उत्तरांचल, उत्तर प्रदेश, बिहार और बंगाल से गुजरते हुए यह पवित्र नदी बंगाल की खाड़ी में लुप्त होने से पहले 2525 किलोमीटर का सफर तय कर करोड़ों भारतीयों को भोजन तथा रोजगार उपलब्ध करा देती है। उत्तर प्रदेश की प्रमुख नदी गंगा इस दौरान वाराणसी, मिर्जापुर, कानपुर और इलाहाबाद समेत उत्तर प्रदेश के एक दर्जन से अधिक जिलों में श्रद्धा, संस्कृति और भक्ति के  संगम की अनुपम मिसाल पेश करती है। 
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार प्रतिमाओं के निर्माण में काम आने वाले प्लास्टर आफ पेरिस में जिप्सम, सल्फर, फासफोरस और मैग्नीशियम नदियों के जल को प्रदूषित करते हैं जबकि मूर्तियों की सजावट के लिये इस्तेमाल होने वाले रसायनिक रंगो में मौजूद मरकरी, कैडमियम, शीशा और कार्बन जल को विषाक्त बनाने में महती भूमिका अदा करते हैं। बोर्ड के अनुसार नदियों में प्रवास करने वाली मछली और चिडिय़ों जैसे जलीय जीव जंतु इन रसायनों से कुप्रभावित होते हैं जबकि इन जंतुओं को खाद्य सामग्री के तौर पर इस्तेमाल करने तथा पेय जल से लोग चर्मरोग, श्वांस रोग, अम्लता तथा कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों की चपेट में आ सकते हैं। 
गणेश पूजा के साथ शुरू हिन्दुओं का त्योहारी मौसम करीब दो माह के बाद छठ पूजा के साथ समाप्त होगा। इस दौरान दुर्गापूजा समेत कई छोटे बड़े त्योहारो से घर और बाजार जगमगायेंगे। दिलचस्प पहलू यह है कि गंगा के प्रति अटूट श्रद्धा रखने वाले ये श्रद्धालु ही इस दौरान गंगा में प्रतिमायें और पूजा सामग्री प्रवाहित कर उसके जल को और मैला  करेंगे। 
गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन का कार्यक्रम सम्पन्न हो चुका है । एकअनुमान के अनुसार इस वर्ष पूरे प्रदेश में गणेश प्रतिमाओं के पंडाल में करीब दो गुना का इजाफा हुआ जबकि 15 दिनों तक चलने वाले पितृपक्ष के बाद श्रद्धालु दुर्गापूजा में व्यस्त हो जाएंगे। दुर्गा प्रतिमाओं और पूजा सामग्री का विसर्जन गंगा, गोमती और यमुना समेत कई छोटी बड़ी नदियों में सम्पन्न होगा। 
गैर सरकारी संस्था 'इको फ्रैन्डस के कार्यकारी निदेशक राकेश जायसवाल ने इस सबंध में कहा कि सीवर तथा चर्म टेनरियों से निकले रसायन गंगा को सर्वाधिक प्रदूषित करते हैं मगर श्रद्धा के नाम पर आम लोगों का अल्प मात्रा में ही सही मगर नदियों को प्रदूषित करना खेदजनक है। जायसवाल ने कहा कि मूर्तियों के विसर्जन का मानसून के तुरंत बाद होता है। इस दौरान नदियों में पर्याप्त जल होता है जिससे फौरी तौर पर प्रदूषण का पता नहीं चलता मगर नवम्बर से जून के मध्य जब नदियों में जल की मात्रा कम होती है उस दौरान प्रदूषित सामग्री से जल मे घुलित आक्सीजन सामान्य से काफी क म हो जाती है। 
उन्होंने कहा कि नदियों के पीने योग्य जल में सामान्य तौर पर जैविक आक्सीजन डिमांड (बीओडी) तीन मिलीग्राम प्रति लीटर से कम होनी चाहिये जबकि घुलित आक्सीजन (डीओ) की मात्रा 5 मिलीग्राम प्रति लीटर से अधिक होनी चाहिये। सीवर के प्रदूषित जल में बीओडी 250 मिलीग्राम प्रति लीटर के करीब होता है जबकि चर्म शोधन इकाइयों से निकले प्रदूषित जल में यह स्तर 2000 मिली प्रति लीटर से अधिक हो सकता है। 
उन्होंने सुझाव दिया कि यदि प्लास्टर आफ पेरिस की जगह मिट्टी और जूट से बनी मूर्तियां इस्तेमाल की जाये तथा इनकों रंगने के लिये हानिकारक रसायनिक रंगो की बजाय पर्यावरण के अनुकूल वनस्पतियों से बने रंगों को इस्तेमाल किया जाये तो प्रतिमाओं के विसर्जन से नदियों पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ेगा। पूजा सामग्री को नदियों में विसर्जित करने की बजाय पेड़ अथवा गमलों में डाल देना चाहिये जों खाद का काम करेंगे।

खतरे की घंटी बजाते मोबाइल!


मोबाइल फोन के बिना अब हम जिंदगी की कल्पना भी नहीं कर पाते। आदत ऐसी बन गई है कि जब कॉल नहीं होता, तो भी हमें लगता है कि घंटी बज रही है। यह घंटी दरअसल खतरे की घंटी हो सकती है। मोबाइल फोन और मोबाइल टावर से निकलने वाला रेडिएशन सेहत के लिए खतरा भी साबित हो सकता है। लेकिन कुछ सावधानियां बरती जाएं, तो मोबाइल रेडिएशन से होने वाले खतरों से काफी हद तक बचा जा सकता है। 
क्या रेडिएशन से सेहत से जुड़ी समस्याएं होती हैं?
मोबाइल रेडिएशन पर कई रिसर्च पेपर तैयार कर चुके आईआईटी बॉम्बे में इलेक्ट्रिकल इंजिनियर प्रो. गिरीश कुमार का कहना है कि मोबाइल रेडिएशन से तमाम दिक्कतें हो सकती हैं, जिनमें प्रमुख हैं सिरदर्द, सिर में झनझनाहट, लगातार थकान महसूस करना, चक्कर आना, डिप्रेशन, नींद न आना, आंखों में ड्राइनेस, काम में ध्यान न लगना, कानों का बजना, सुनने में कमी, याददाश्त में कमी, पाचन में गड़बड़ी, अनियमित धड़कन, जोड़ों में दर्द आदि।
स्टडी कहती है कि मोबाइल रेडिएशन से लंबे समय के बाद प्रजनन क्षमता में कमी, कैंसर, ब्रेन ट्यूमर और मिस-कैरेज की आशंका भी हो सकती है। दरअसल, हमारे शरीर में 70 फीसदी पानी है। दिमाग में भी 90 फीसदी तक पानी होता है। यह पानी धीरे-धीरे बॉडी रेडिएशन को अब्जॉर्ब करता है और आगे जाकर सेहत के लिए काफी नुकसानदेह होता है। यहां तक कि बीते साल आई डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक मोबाइल से कैंसर तक होने की आशंका हो सकती है। इंटरफोन स्टडी में कहा गया कि हर दिन आधे घंटे या उससे ज्यादा मोबाइल का इस्तेमाल करने पर 8-10 साल में ब्रेन ट्यूमर की आशंका 200-400 फीसदी बढ़ जाती है।
रेडिएशन कितनी तरह का होता है?
माइक्रोवेव रेडिएशन उन इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्स के कारण होता है, जिनकी फ्रीक्वेंसी 1000 से 3000 मेगाहर्ट्ज होती है। माइक्रोवेव अवन, एसी, वायरलेस कंप्यूटर, कॉर्डलेस फोन और दूसरे वायरलेस डिवाइस भी रेडिएशन पैदा करते हैं। लेकिन लगातार बढ़ते इस्तेमाल, शरीर से नजदीकी और बढ़ती संख्या की वजह से मोबाइल रेडिएशन सबसे खतरनाक साबित हो सकता है। मोबाइल रेडिएशन दो तरह से होता है, मोबाइल टावर और मोबाइल फोन से।
रेडिएशन से किसे ज्यादा नुकसान होता है?
मैक्स हेल्थकेयर में कंसल्टेंट न्यूरोलॉजिस्ट डॉ. पुनीत अग्रवाल के मुताबिक मोबाइल रेडिएशन सभी के लिए नुकसानदेह है लेकिन बच्चे, महिलाएं, बुजुर्गों और मरीजों को इससे ज्यादा नुकसान हो सकता है। अमेरिका के फूड एंड ड्रग्स ऐडमिनिस्ट्रेशन का कहना है कि बच्चों और किशोरों को मोबाइल पर ज्यादा वक्त नहीं बिताना चाहिए और स्पीकर फोन या हैंडसेट का इस्तेमाल करना चाहिए, ताकि सिर और मोबाइल के बीच दूरी बनी रहे। बच्चों और और प्रेगनेंट महिलाओं को भी मोबाइल फोन के ज्यादा यूज से बचना चाहिए।
मोबाइल टावर या फोन, किससे नुकसान ज्यादा?
प्रो. गिरीश कुमार के मुताबिक मोबाइल फोन हमारे ज्यादा करीब होता है, इसलिए उससे नुकसान ज्यादा होना चाहिए लेकिन ज्यादा परेशानी टावर से होती है क्योंकि मोबाइल का इस्तेमाल हम लगातार नहीं करते, जबकि टावर लगातार चौबीसों घंटे रेडिएशन फैलाते हैं। मोबाइल पर अगर हम घंटा भर बात करते हैं तो उससे हुए नुकसान की भरपाई के लिए हमें 23 घंटे मिलते हैं, जबकि टावर के पास रहनेवाले उससे लगातार निकलने वाली तरंगों की जद में रहते हैं। अगर घर के समाने टावर लगा है तो उसमें रहनेवाले लोगों को 2-3 साल के अंदर सेहत से जुड़ी समस्याएं शुरू हो सकती हैं। मुंबई की उषा किरण बिल्डिंग में कैंसर के कई मामले सामने आने को मोबाइल टावर रेडिएशन से जोड़कर देखा जा रहा है। फिल्म ऐक्ट्रेस जूही चावला ने सिरदर्द और सेहत से जुड़ी दूसरी समस्याएं होने पर अपने घर के आसपास से 9 मोबाइल टावरों को हटवाया।
मोबाइल टावर के किस एरिया में नुकसान सबसे ज्यादा?
मोबाइल टावर के 300 मीटर एरिया में सबसे ज्यादा रेडिएशन होता है। ऐंटेना के सामनेवाले हिस्से में सबसे ज्यादा तरंगें निकलती हैं। जाहिर है, सामने की ओर ही नुकसान भी ज्यादा होता है, पीछे और नीचे के मुकाबले। मोबाइल टावर से होनेवाले नुकसान में यह बात भी अहमियत रखती है कि घर टावर पर लगे ऐंटेना के सामने है या पीछे। इसी तरह दूरी भी बहुत अहम है। टावर के एक मीटर के एरिया में 100 गुना ज्यादा रेडिएशन होता है। टावर पर जितने ज्यादा ऐंटेना लगे होंगे, रेडिएशन भी उतना ज्यादा होगा।
कितनी देर तक मोबाइल का इस्तेमाल ठीक है?
दिन भर में 24 मिनट तक मोबाइल फोन का इस्तेमाल सेहत के लिहाज से मुफीद है। यहां यह भी अहम है कि आपके मोबाइल की SAR वैल्यू क्या है? ज्यादा SAR वैल्यू के फोन पर कम देर बात करना कम SAR वैल्यू वाले फोन पर ज्यादा बात करने से ज्यादा नुकसानदेह है। लंबे वक्त तक बातचीत के लिए लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल रेडिएशन से बचने का आसान तरीका है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि ऑफिस या घर में लैंडलाइन फोन का इस्तेमाल करें। कॉर्डलेस फोन के इस्तेमाल से बचें।
बोलते हैं आंकड़े
-2010 में डब्ल्यूएचओ की एक रिसर्च में खुलासा हुआ कि मोबाइल रेडिएशन से कैंसर होने का खतरा है।
-हंगरी में साइंटिस्टों ने पाया कि जो युवक बहुत ज्यादा सेल फोन का इस्तेमाल करते थे, उनके स्पर्म की संख्या कम हो गई।
-जर्मनी में हुई रिसर्च के मुताबिक जो लोग ट्रांसमिटर ऐंटेना के 400 मीटर के एरिया में रह रहे थे, उनमें कैंसर होने की आशंका तीन गुना बढ़ गई। 400 मीटर के एरिया में ट्रांसमिशन बाकी एरिया से 100 गुना ज्यादा होता है।
-केरल में की गई एक रिसर्च के अनुसार सेल फोन टॉवरों से होनेवाले रेडिएशन से मधुमक्खियों की कमर्शल पॉप्युलेशन 60 फीसदी तक गिर गई है।
-सेल फोन टावरों के पास जिन गौरेयों ने अंडे दिए, 30 दिन के बाद भी उनमें से बच्चे नहीं निकले, जबकि आमतौर पर इस काम में 10-14 दिन लगते हैं। गौरतलब है कि टावर्स से काफी हल्की फ्रीक्वेंसी (900 से 1800 मेगाहर्ट्ज) की इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेव्ज निकलती हैं, लेकिन ये भी छोटे चूजों को काफी नुकसान पहुंचा सकती हैं।
-2010 की इंटरफोन स्टडी इस बात की ओर इशारा करती है कि लंबे समय तक मोबाइल के इस्तेमाल से ट्यूमर होने की आशंका बढ़ जाती है।
रेडिएशन को लेकर क्या हैं गाइडलाइंस?
जीएसएम टावरों के लिए रेडिएशन लिमिट 4500 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर तय की गई। लेकिन इंटरनैशनल कमिशन ऑन नॉन आयोनाइजिंग रेडिएशन (आईसीएनआईआरपी) की गाइडलाइंस जो इंडिया में लागू की गईं, वे दरअसल शॉर्ट-टर्म एक्सपोजर के लिए थीं, जबकि मोबाइल टॉवर से तो लगातार रेडिएशन होता है। इसलिए इस लिमिट को कम कर 450 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर करने की बात हो रही है। ये नई गाइडलाइंस 15 सितंबर से लागू होंगी। हालांकि प्रो. गिरीश कुमार का कहना है कि यह लिमिट भी बहुत ज्यादा है और सिर्फ 1 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर रेडिशन भी नुकसान देता है। यही वजह है कि ऑस्ट्रिया में 1 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर और साउथ वेल्स, ऑस्ट्रेलिया में 0.01 मिलीवॉट/मी. स्क्वेयर लिमिट है।
दिल्ली में मोबाइल रेडिएशन किस लेवल पर है?
2010 में एक मैगज़ीन और कंपनी के सर्वे में दिल्ली में 100 जगहों पर टेस्टिंग की गई और पाया कि दिल्ली का एक-चौथाई हिस्सा ही रेडिएशन से सुरक्षित है लेकिन इन जगहों में दिल्ली के वीवीआईपी एरिया ही ज्यादा हैं। रेडिएशन के लिहाज से दिल्ली का कनॉट प्लेस, नई दिल्ली रेलवे स्टेशन, खान मार्केट, कश्मीरी गेट, वसंत कुंज, कड़कड़डूमा, हौज खास, ग्रेटर कैलाश मार्केट, सफदरजंग अस्पताल, संचार भवन, जंगपुरा, झंडेवालान, दिल्ली हाई कोर्ट को डेंजर एरिया में माना गया। दिल्ली के नामी अस्पताल भी इस रेडिएशन की चपेट में हैं।
किस तरह कम कर सकते हैं मोबाइल फोन रेडिएशन?
-रेडिएशन कम करने के लिए अपने फोन के साथ फेराइट बीड (रेडिएशन सोखने वाला एक यंत्र) भी लगा सकते हैं।
-मोबाइल फोन रेडिएशन शील्ड का इस्तेमाल भी अच्छा तरीका है। आजकल कई कंपनियां मार्केट में इस तरह के उपकरण बेच रही हैं।
-रेडिएशन ब्लॉक ऐप्लिकेशन का इस्तेमाल कर सकते हैं। दरअसल, ये खास तरह के सॉफ्टवेयर होते हैं, जो एक खास वक्त तक वाईफाई, ब्लू-टूथ, जीपीएस या ऐंटेना को ब्लॉक कर सकते हैं।
टावर के रेडिएशन से कैसे बच सकते हैं?
मोबाइल रेडिएशन से बचने के लिए ये उपाय कारगर हो सकते हैं:
-मोबाइल टॉवरों से जितना मुमकिन है, दूर रहें।
-टावर कंपनी से ऐंटेना की पावर कम करने को बोलें।
-अगर घर के बिल्कुल सामने मोबाइल टावर है तो घर की खिड़की-दरवाजे बंद करके रखें।
-घर में रेडिएशन डिटेक्टर की मदद से रेडिएशन का लेवल चेक करें। जिस इलाके में रेडिएशन ज्यादा है, वहां कम वक्त बिताएं।
Detex नाम का रेडिएशन डिटेक्टर करीब 5000 रुपये में मिलता है।
-घर की खिड़कियों पर खास तरह की फिल्म लगा सकते हैं क्योंकि सबसे ज्यादा रेडिएशन ग्लास के जरिए आता है। ऐंटि-रेडिएशन फिल्म की कीमत एक खिड़की के लिए करीब 4000 रुपए पड़ती है।
-खिड़की दरवाजों पर शिल्डिंग पर्दे लगा सकते हैं। ये पर्दे काफी हद तक रेडिएशन को रोक सकते हैं। कई कंपनियां ऐसे प्रॉडक्ट बनाती हैं।
क्या कम सिग्नल भी हो सकते हैं घातक?
अगर सिग्नल कम आ रहे हों तो मोबाइल का इस्तेमाल न करें क्योंकि इस दौरान रेडिएशन ज्यादा होता है। पूरे सिग्नल आने पर ही मोबाइल यूज करना चाहिए। मोबाइल का इस्तेमाल खिड़की या दरवाजे के पास खड़े होकर या खुले में करना बेहतर है क्योंकि इससे तरंगों को बाहर निकलने का रास्ता मिल जाता है।
स्पीकर पर बात करना कितना मददगार?
मोबाइल शरीर से जितना दूर रहेगा, उनका नुकसान कम होगा, इसलिए फोन को शरीर से दूर रखें। इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन से बचने के लिए स्पीकर फोन या या हैंड्स-फ्री का इस्तेमाल करें। ऐसे हेड-सेट्स यूज करें, जिनमें ईयर पीस और कानों के बीच प्लास्टिक की एयर ट्यूब हो।
क्या मोबाइल तकिए के नीचे रखकर सोना सही है?
मोबाइल को हर वक्त जेब में रखकर न घूमें, न ही तकिए के नीचे या बगल में रखकर सोएं क्योंकि मोबाइल हर मिनट टावर को सिग्नल भेजता है। बेहतर है कि मोबाइल को जेब से निकालकर कम-से-कम दो फुट यानी करीब एक हाथ की दूरी पर रखें। सोते हुए भी दूरी बनाए रखें।
जेब में मोबाइल रखना दिल के लिए नुकसानदेह है?
अभी तक मोबाइल रेडिएशन और दिल की बीमारी के बीच सीधे तौर पर कोई ठोस संबंध सामने नहीं आया है। लेकिन मोबाइल के बहुत ज्यादा इस्तेमाल या मोबाइल टावर के पास रहने से दूसरी समस्याओं के साथ-साथ दिल की धड़कन का अनियमित होने की आशंका जरूर होती है। बेहतर यही है कि हम सावधानी बरतें और मोबाइल का इस्तेमाल कम करें।
SAR की मोबाइल रेडिएशन में क्या भूमिका है?
-कम एसएआर संख्या वाला मोबाइल खरीदें, क्योंकि इसमें रेडिएशन का खतरा कम होता है। मोबाइल फोन कंपनी की वेबसाइट या फोन के यूजर मैनुअल में यह संख्या छपी होती है। वैसे, कुछ भारतीय कंपनियां ऐसी भी हैं, जो एसएआर संख्या का खुलासा नहीं करतीं।
क्या है SAR: अमेरिका के नैशनल स्टैंडर्ड्स इंस्टिट्यूट के मुताबिक, एक तय वक्त के भीतर किसी इंसान या जानवर के शरीर में प्रवेश करने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक तरंगों की माप को एसएआर (स्पैसिफिक अब्जॉर्पशन रेश्यो) कहा जाता है। एसएआर संख्या वह ऊर्जा है, जो मोबाइल के इस्तेमाल के वक्त इंसान का शरीर सोखता है। मतलब यह है कि जिस मोबाइल की एसएआर संख्या जितनी ज्यादा होगी, वह शरीर के लिए उतना ही ज्यादा नुकसानदेह होगा।
भारत में SAR के लिए क्या हैं नियम?
अभी तक हैंडसेट्स में रेडिएशन के यूरोपीय मानकों का पालन होता है। इन मानकों के मुताबिक हैंडसेट का एसएआर लेवल 2 वॉट प्रति किलो से ज्यादा बिल्कुल नहीं होना चाहिए। लेकिन एक्सपर्ट इस मानक को सही नहीं मानते हैं। इसके पीछे दलील यह दी जाती है कि ये मानक भारत जैसे गर्म मुल्क के लिए मुफीद नहीं हो सकते। इसके अलावा, भारतीयों में यूरोपीय लोगों के मुकाबले कम बॉडी फैट होता है। इस वजह से हम पर रेडियो फ्रीक्वेंसी का ज्यादा घातक असर पड़ता है। हालांकि, केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित गाइडलाइंस में यह सीमा 1.6 वॉट प्रति किग्रा कर दी गई है, जोकि अमेरिकी स्टैंडर्ड है।
मोबाइल को कहां रखें?
मोबाइल को कहां रखा जाए, इस बारे में अभी तक कोई आम राय नहीं बनी है। यह भी साबित नहीं हुआ है कि मोबाइल को पॉकेट आदि में रखने से सीधा नुकसान है, पेसमेकर के मामले को छोड़कर। फिर भी एहतियात के तौर पर महिलाओं के लिए मोबाइल को पर्स में रखना और पुरुषों के लिए कमर पर बेल्ट पर साइड में लगाए गए पाउच में रखना सही है।