गुरुवार, 22 अगस्त 2013

विवेकानंद का चिंतन: हम क्षुद्र नहीं

जो व्यक्ति स्वयं को अविनाशी और अनंत आत्मा के रूप में देखने लगता है, उसे दुख नहीं घेरते। स्वामी विवेकानंद का चिंतन..
जो कोई यह सोचता है कि मैं क्षुद्र हूं, वह भूल कर रहा है। क्योंकि सत्ता केवल एक आत्मा की ही है। सूर्य का अस्तित्व इसलिए है, क्योंकि हम कहते हैं कि सूर्य है। जब मैं उद्घोषित करता हूं कि दुनिया विद्यमान है, तभी उसे अस्तित्व प्राप्त होता है। मेरे बिना वे नहीं रह सकते, क्योंकि मैं सत, चित और आनंद स्वरूप हूं। मैं सदा सुखी हूं, मैं सदा पवित्र हूं, मैं सदा सुहावना हूं। देखो, सूर्य के कारण ही प्राणिमात्र देख सकते हैं, किंतु किसी की भी आंख के दोष का उस पर कोई परिणाम नहीं होता। मैं भी इसी तरह हूं। शरीर की सब इंद्रियों द्वारा मैं काम करता हूं, किंतु काम के भले-बुरे गुण का परिणाम मुझ पर नहीं होता। मेरा कोई नियामक नहीं है और न कोई कर्म। मैं ही कर्मो का नियामक हूं। मैं तो सदा वर्तमान था और अभी भी हूं। मेरा सच्चा सुख भौतिक वस्तुओं में कभी न था। सुख और दुख, अच्छा और बुरा मेरी आत्मा को एक क्षण के लिए भले ही ढक ले, पर फिर भी वहां मेरा अस्तित्व है ही। वे इसलिए निकल जाते हैं, क्योंकि वे बदलने वाले हैं। मैं रह जाता हूं, क्योंकि मैं विकारहीन हूं। अगर दुख आता है, तो मैं जानता हूं कि वह मर्यादित है। बुराई आती है, तो मैं जानता हूं कि वह चली जाएगी। मैं अनंत, शाश्वत और अपरिणामी आत्मा हूं। आओ, इस प्याली का पेय पिएं, जो विकारहीन वस्तु की ओर हमें ले जाती है। ऐसा मत सोचो कि हममें बुराई है, हम साधारण हैं या हम कभी भी मर सकते हैं। यह सच नहीं है।

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